दिगंबरा दिगंबरा श्रीपाद वल्लभ दिगंबरा

श्रीवासुदेव निवास में भक्ती, उपासना और कुंडलिनी शक्तिपात महायोग इन तीनों धाराओं का त्रिवेणी संगम हुआ है। कुंडलिनी शक्तिपात महायोग विद्या के मूलपीठ के रूप में श्रीवासुदेव ख्यातकिर्त है ही, साथ ही श्री दत्तसंप्रदाय का एक प्रमुख केंद्र इस रूप में भी पूरे भारत में श्री वासुदेव निवास को जाना जाता है। 

योगीराज प. पू. श्रीगुलवणी महाराज जी की माताश्री उमाबाई जी को यतिस्वरूप भगवान श्रीदत्तात्रेय जी का दर्शन हुआ था। यतिस्वरूप भगवान श्रीदत्तात्रेय जीने रजत पादुकाओं का प्रसाद दिया था। इन्ही प्रसाद पादुका के रूप में भगवान श्री दत्तात्रेय श्री वासुदेव निवास में विराजमान है। प्रतिदिन प्रातः काल में पूजा के समय उपस्थित सभी भक्तों को इनके दर्शन का लाभ होता है।

योगिराज श्री गुलवणी महाराज जी की कुलदेवता श्री तुलजाभवानी माता का अधिष्ठान श्री वासुदेव निवास में है। आदिमाया भगवती कुंडलिनी माता श्रीतुलजाभवानी के स्वरूप में और भगवान ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर इन परमदेवताओं का अधिष्ठान भगवान श्री दत्तात्रेय के रूप में यहाँ है। इसीलिए श्री वासुदेव निवास देश और विदेश में रहनेवाले भक्तों के लिए एक पवन तीर्थक्षेत्र बना है।         

दत्तावतार परमहंस परिव्राजकाचार्य श्रीवासुदेवानंदसरस्वती टेंबे स्वामी महाराज जी और  शक्तीपाताचार्य परमहंस परिव्राजकाचार्य श्रीलोकनाथ तीर्थस्वामी महाराज जी,  योगीराज श्रीवामनराव गुळवणी महाराज जी, ब्रह्मश्री श्रीदत्तमहाराज कवीश्वर जी, योगतपस्वी श्रीनारायणकाका ढेकणे महाराज जी श्रीवासुदेव निवास में प्रत्यक्ष विराजमान हैं और इनके निरंतर कृपाछत्र की छाया हमें प्राप्त है यही भाव यहाँ आनेवाले आर्त भक्तों के मन में उत्पन्न होते हैं। 

श्री वासुदेव निवास की स्थापना करते समय ही यहाँ के प्रबंधन के लिए योगिराज श्रीगुलवणी महाराज जी ने शास्त्रशुद्ध व्यवस्था का निर्माण किया है। उसी व्यवस्था के अनुसार यहाँ के सभी उत्सव, उपासना सम्पन्न होते हैं। सम्पूर्ण वर्षमें विविध यज्ञयाग, संहिता पठन के आयोजन किए जाते हैं। श्रीगुरुचरित्र ग्रंथ पारायण, श्रीमद्भा्गवत कथा सप्ताह, सामुहिक  श्रीसत्यदत्तपूजन, अखंड नामजप, श्रीविष्णूसहस्त्रनाम पठण  इन जैसे आयोजनों में हजारों भक्त सहभाग लेते हैं।

 

श्री वासुदेव निवास की दिनचर्या

प्रातःकाल 
पवमान, रुद्र, अथर्वशीर्ष, श्रीसूक्त, पुरुषसुक्त  का  अभिषेक, पूजा   
देवदर्शन :  सुबह  ७ से रात्री ९ तक  

माध्यान्ह  १२ –३० ते . 
वैश्वदेव, महानैवेद्य  
सायंकाल  ते .३०
भजन (सोमवार, गुरुवार)

सायंकाल ७.३०  ते . 
आरती तथा करुणात्रिपदी  
सभी आरतीयों साथ
(प्रत्येक दिन की विशेष आरती)

प्रत्येक रविवार 
सामुदायिक साधना 
प्रातःकाल ८ से  ९ 
सत्संग: प्रातःकाल ९ ते १०

प्रत्येक महीने का चौथा शनिवार और रविवार: निवासी महायोग साधना शिबीर

श्रीवासुदेव निवास स्थापना का हेतु और पूर्व भूमिका  

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प.पू. श्रीगुलवणी महाराज जी ने बनाया तैलचित्र
परम पूजनीय योगिराज श्रीगुलवणी महाराज जी, श्रीदत्त संप्रदाय कें एक अधिकारी सत्पुरुष थें| श्रीदत्तात्रेयप्रभूजी की असीम कृपा से, आप का जन्म श्रद्धेय सौ. उमाबाई मातु:श्री एवम श्रद्धेय पं. श्रीदत्तंभटजी गुळवणी इस सात्विक दाम्पत्य के घर २३ दिसंबर १८८३ को कुडूत्री जि. कोल्हापूर (महाराष्ट्र) मे हुआ|इस धार्मिक परिवार मे कई पीढीयों से चली आ रही श्रीदत्तभक्ती और उपासना के परिणाम स्वरूप आपका जन्म हुआ|

परम पूजनीय योगिराज श्रीगुळवणीमहाराजजी ने, अपने सद्गुरु प. प. श्रीमद्वासुदेवानंद सस्वती स्वामीमहाराज जी के दर्शन हेतू १४०० कि. मी.की यात्रा तय की| उसमें से ७०० कि. मी.की यात्रा आपने पैदल की| फलस्वरूप अंतत:,  कर्नाटक राज्य के हावनूर मे, आपको आपके आराध्य सद्गुरू प. प. श्रीमद्वासुदेवानंदसरस्वती स्वामी महाराज जी के दर्शन का लाभ हुआ| इसी साक्षात्कार में आपको प. प. श्रीमहाराजश्री नें मंत्रोपदेश किया तथा स्वदेहमें व्याघ्रांबरधारी भगवान् दत्तात्रेयप्रभूजी के दर्शन भीं कराये| श्रद्धेय प. पू. योगिराज श्री गुळवणीमहाराजजी एक चित्रकार थे| अतः श्रीदत्तभगवान् की इस छवि का,उन्होंने स्वहस्त से तैलचित्र रेखांकन किया| इस साक्षात्कारी चित्र का आज भी ‘श्रीवासुदेव निवास’ आश्रम के देवगृह में दर्शन किया जा सकता है|

प. प.श्रीमद्वासुदेवानंद सरस्वतीस्वामीमहाराजश्री के ब्रम्हीभूत होने के पश्चात, प्रारब्धवश होशंगाबाद (म. प्र) में श्रद्धेय प. पू. योगिराज श्रीगुळवणीमहाराजजी  का साक्षात्कार प. प. श्रीलोकनाथतीर्थस्वामी महाराजश्री से हुआ| आपकी योगसाधना एवं तीव्र जिज्ञासा कों देख प.प. श्रीस्वामीमहाराजश्री ने आपको महायोग शक्तिपात दीक्षा दी| श्रद्धेय प. पू. योगिराज श्रीगुळवणीमहाराजजी के जीवन मे इस प्रकार से श्रीदत्तभक्ती एवं शक्तिपात महायोग का अपूर्व संगम देखने को मिलता हैं| आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासू, एवं मुमुक्षू आदि सभी प्रकार के साधक एवं भक्तों के अंतिम कल्याण हेतू, भक्ती और शक्ती मार्ग द्वारा, आपने आजन्म अनेकों का उद्धरण किया|  आपका यहीं कार्य आज भी दीपस्तंभ कें भांति अनेकों के जीवन में कार्यरत हैं|

परम पूजनीय प. पू. योगिराज श्री गुलवणी महाराज जी पुणे के नूतन मराठी विद्यालय में चित्रकला विषय के अध्ययपक थे। उनका निवास २० नारायण पेठ, गोवईकर वाडा, पुणे में, केवल दो कमरों के किराये घर में हुआँ करता था| परंतु इतने छोटे से स्थान में रहते हुएँ भी आपके अलौकिक एवं दिव्य कार्य की महक संपूर्ण भारतवर्ष में फैली हुईं थी| इसी के चलते, आपके निवासस्थान पर भक्तों का अखंडरुप से तांता लगा रहता था| इस निवासस्थान पर परंपरा के सभी उत्सव, एवं कार्यक्रम उत्साह के साथ मनाये जाते थे| बढती हुई भक्तों की संख्या, एवं बढता कार्य दोनों को देखते हुएँ, किसी स्थाई व्यवस्था की स्थापना का मानस भक्तजनों ने श्रीमहाराजजी के सामने प्रस्तुत किया| संपूर्ण जीवनभर सन्यस्तवृत्ती में व्यतीत करनेवाले प. पू.श्रीमहाराजजी, पहले तो आश्रम स्थापना के विरोध में थे| उन्हे यह कल्पना पसंद नहीं थी|

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परम पूजनीय श्रीगुलवणी महाराज जी का  २०, नारायण पेठ स्थित निवासस्थान

मगर इश्वरेच्छा कुछ और ही थी| १२ जुलै १९६१ , को पुणे का पानशेत बांध फूट गया।  करीब आधा शहर जलमय हो गया| नारायण पेठ में ,स्थित श्रीमहाराजजी का निवासस्थान भी पानी में पूरी तरह से डूब गया| इससे प. प. श्रीमद् वासुदेवानंदसरस्वतीस्वामी महाराजश्री की, हस्तलिखित वाड्मयसंपदा का भी भारी नुकसान हुआ| परंपरा का कार्य दृढतापूर्वक आगे बढाने हेतू स्वतंत्र आश्रम के निर्माण की आवश्यकता को इस घटना से पुष्टी मिली| इस के चलते प. पू.श्रीमहाराजजी ने  नएँ आश्रम के निर्माण को अनुमोदन दे दिया| नियोजित आश्रम वास्तू का नामकरण श्री वासुदेव निवास सुनिश्चित किया गया| इस नामकरण के विषय में श्री महाराजजी ने अपनी भूमिका इस प्रकार स्पष्ट की:

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञान वान्मां प्रप द्ध्यते
वासुदेव: सर्वमिती स महात्मा सुदुर्लभ:

अनेक जन्मो के उपरांत, तत्वज्ञान  प्राप्त करनेवाला ज्ञानीभक्त, वासुदेव: सर्वमिती

‘सब कुछ वासुदेव हैं’, इस भाव से  मेरी भक्ती में,  स्व का अर्पण कर मेरी पूजा करता हैं| ऐसा महात्मा अति दुर्लभ होता हैं| ऐसे स्वयं भगवान श्रीकृष्ण के वचन हैं|  लोकनाथ के साथ ,सभी नाम अंततः उस वासुदेव तत्व के ही हैं|  फिर भी वासुदेव नाम का अलग महत्त्व, स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने कहा हैं |

आश्रम का निर्माणकार्य पुरा होने पर, पौष वद्य १०, २७ जनवरी १९६५, बुधवार, अनुराधा नक्षत्र, अमृतसिध्दीयोग, प्रातः ९:२३ मि. के शुभमुहूर्त पर आश्रम की वास्तूशांति और प्रवेश करना सुनिश्चित हुआ| इस प्रकार नूतन आश्रम प्रवेश संपन्न होकर, वास्तू लोकार्पित की गयी|